मन के पटल को
धीरे से उँगली से स्पर्श कर
उदासियों की धूल झाड़ दी
मन की खिड़कियाँ खोल दी
समुचित आकाश को
निहारती रही
दूर से किसी ने आवाज लगाई
करीब आते आते शाम हो गई
उसने मंदिर के दीए की लो में
मेरे चेहरे पर फैली उदासियों की चादर
अपने हाथों के स्पर्श से हटा दी
और कहा उतना ही करीब आवुगा जिससे
समिर की गति में अवरोध न उत्पन्न हो
यामीनि के पंख जख्मी न हो
कहीं दूर दराज में गूंजती
संध्या वाणी में हमारी सांसों की
ध्वनि से व्यवधान न पड़े
हमें आना है करीब पर कुछ इस तरह
हमारे करीब आने की खबर से
हम भी बेखबर रहे
हमें आना है कुछ इस तरह करीब
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें