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एक कविता


चालाकियां ईमानदारी और धुर्तता
संसार के रंगमंच पर
प्रमुख भूमिकाएं निभा रही हैं

इस जंग लगे समय में
ईमानदारी बेमनियों के घर
पानी भर रही है

कुछ तथाकथित नरियाँ
अपने मुलायम उंगलियों के स्पर्श से
कामयाबी के कंधे छू रही हैं

वहीं कुछ पुरुष वक्र दृष्टि से
आधी आबादी की बुद्धि की तरफ कम
देह की और अधिक आकर्षित होता जा रहा है

साधु संतों के भेष के पीछे
धर्म कम और मंक्कारी और वासनाओं का
बाजार अधिक फल-फुल रहा है

सूरज की पहली किरण के साथ
सच माथें पर काली पट्टी बांधे
झूठ के दरबार में झुक कर सलाम कर रहा है

पर परिवर्तन के नियम से कोई नहीं बचा है
ना धरा ना आसमान ना इंसान

समय का पहियां अपनी रफ्तार पकड़ लेगा
कुम्हार के चाक पर फिसलती
अनावश्यक मिट्टी की भांति
बेइमानिक का यह फलता फुलता बाजार
अस्तित्वहीन होकर नष्ट होगा
पुनरुत्थान की किरणों पर बैठ
सच दतुरी मुस्कान के साथ मुस्कुरा उठेगा


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दु:ख

काली रात की चादर ओढ़े  आसमान के मध्य  धवल चंद्रमा  कुछ ऐसा ही आभास होता है  जैसे दु:ख के घेरे में फंसा  सुख का एक लम्हां  दुख़ क्यों नहीं चला जाता है  किसी निर्जन बियाबांन में  सन्यासी की तरह  दु:ख ठीक वैसे ही है जैसे  भरी दोपहर में पाठशाला में जाते समय  बिना चप्पल के तलवों में तपती रेत से चटकारें देता   कभी कभी सुख के पैरों में  अविश्वास के कण  लगे देख स्वयं मैं आगे बड़कर  दु:ख को गले लगाती हूं  और तय करती हूं एक  निर्जन बियाबान का सफ़र

जरूरी नही है

घर की नींव बचाने के लिए  स्त्री और पुरुष दोनों जरूरी है  दोनों जितने जरूरी नहीं है  उतने जरूरी भी है  पर दोनों में से एक के भी ना होने से बची रहती हैं  घर की नीव दीवारों के साथ  पर जितना जरूरी नहीं है  उतना जरुरी भी हैं  दो लोगों का एक साथ होना

उसे हर कोई नकार रहा था

इसलिए नहीं कि वह बेकार था  इसलिए कि वह  सबके राज जानता था  सबकी कलंक कथाओं का  वह एकमात्र गवाह था  किसी के भी मुखोटे से वह वक्त बेवक्त टकरा सकता था  इसीलिए वह नकारा गया  सभाओं से  मंचों से  उत्सवों से  पर रुको थोड़ा  वह व्यक्ति अपनी झोली में कुछ बुन रहा है शायद लोहे के धागे से बिखरे हुए सच को सजाने की  कवायद कर रहा है उसे देखो वह समय का सबसे ज़िंदा आदमी है।