समंदर ने पानी उधार लिया है
नदियों से
जैसे उधार लेते हैं
कुछ एक पिता बेटियों से
उनकी संपत्ति
और अधिकार के साथ चलाते हैं
पितृसत्ता का साम्राज्य
नदियाँ विलुप्त हो रही हैं
समंदर को भविष्य की बंजरता का
आभास फिर भी नहीं हो रहा है
अगर प्रेम का मतलब इतना भर होता एक दूसरे से अनगिनत संवादों को समय की पीठ पर उतारते रहना वादों के महानगर खड़ें करना एक दूसरे के बगैर न रहकर हर प्रहर का बंद दरवाजा खोल देना अगर प्रेम की सीमा इतनी भर होती तो कबका तुम्हें मैं भुला देती पर प्रेम मेरे लिए आत्मा पर गिरवाई वो लकीर है जो मेरे अंतिम यात्रा तक रहेगी और दाह की भूमि तक आकर मेरे देह के साथ मिट जायेगी और हवा के तरंगों पर सवार हो आसमानी बादल बनकर किसी तुलसी के हृदय में बूंद बन समा जाएगी तुम्हारा प्रेम मेरे लिए आत्मा पर गिरवाई वो लकीर है जो पुनः पुनः जन्म लेगी
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