एक नदी दूर से
पत्थरों को तोड़ती रही
और अपने देह से
रेत को बहाती रही
पर रेत को थमाते हुए
सागर की बाहों में
उसने सदा से
अपने जख्मों को
छुपाकर रखा
और सागर बड़े गर्व से
किनारे पर रचता आया
रेत का अम्बार
और दुनिया भर के
अनगिनत प्रेमियों ने
रेत पर लिख डाले
अपने प्रेमी के नाम
और शुक्रिया करते रहे
समंदर के संसार का
और नदी तलहटी में
खामोशी से समाती रही
पर्दे के पीछे का दृश्य
जितना पीड़ादायक होता है
उतना ही ओझल
संसार की नज़रों से
वाह के साथ आह 👌👌👌
जवाब देंहटाएंनदी का दर्द मर्मान्तक लगा ।।
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (०८-०८ -२०२२ ) को 'इतना सितम अच्छा नहीं अपने सरूर पे'( चर्चा अंक -४५१५) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
अतिसुन्दर।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर
जवाब देंहटाएंवाह
जवाब देंहटाएंवाह्ह.. सराहनीय भाव।
जवाब देंहटाएंसादर।
वाह अनुपम सृजन
जवाब देंहटाएंऔर नदी तलहटी में
जवाब देंहटाएंखामोशी से समाती रही
पर्दे के पीछे का दृश्य
जितना पीड़ादायक होता है
उतना ही ओझल
संसार की नज़रों से
सुंदर भावपूर्ण प्रस्तुति।
नारी और नदिया की पीड़ा एक सी।सागर सरीखे प्रेमी कभी नहीं बदलते।संसार की दृष्टि से ओझल रहा है सब कुछ।सदियों से!
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना
जवाब देंहटाएंजितना पीड़ादायक होता है
जवाब देंहटाएंउतना ही ओझल
संसार की नज़रों से
सुंदर भावपूर्ण प्रस्तुति।
कितनी मार्मिक और सच्ची कविता । नदी का संघर्ष किसे दिखता है !
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