कविता को मैं कोलाहल में से
उठाकर लेकर आती हूं
और फिर कविता मुझे
एंकात में लेकर जाती हैं
कहीं बार शब्दों के
पोशाक पर मैं अटक जाती हुं
फिर से कोलाहल के
बाजारों से चुनकर लाती हूं
कुछ मुलायम से कुछ मिर्च से
और पहना देती हूँ मेरी कविता को
शब्दों का मैं पोशाक
जिव्हा लेती हैं उसका स्वाद
करती हैं कहीं क्रांति का आगा़ज
और फिर अज्ञानता के कुँऐ का
माप लेती हैं मेरी कविता
कुम्हार के बंजर पड़े चाक पर
फिसलती है मिट्टी बन मेरी कविता
या फिर बेरोजगारी को
रोजगारी के नये मंत्र
सीखा आती है मेरी कविता
कविता को मैं कोलाहल में से
उठाकर लेकर आती हूं
और कविता मुझे एकांत में लेकर जाती हैं
बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंवाह !!! लाजवाब प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंप्रभावशाली लेखन
जवाब देंहटाएंवाह!सराहनीय सृजन।
जवाब देंहटाएंसादर