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और कितना?



तुम मुझे हमेशा  
स्वीकार और अस्वीकार
के मध्य रखते आए हो 

तुमने मुझे हमेशा 
मिलना और बिछड़ना 
इसी के मध्य रखा है 

तुम मुझे हमेशा 
कपाल पर उभरी लकिंर
और होठों पर उभरी मुस्कान
के बीच रखते आये हो

तुम्हारे लिए मैं केवल
एक सामान सी बन गयी हूँ अब तो
या फिर कोई मौसम 

मेरी संवेदनाएं है
ठेस मुझे भी लगती है
रक्त सम आँसू
और कितने बहा दूं मै

या फिर असहनीय दु:ख को
जो बार- बार मेरे हिस्से
तुम लिख रहे हो
उससे आज छुटकारा पा लू? 
रोज होते छलनी मन को
बस एक जख्म देकर
अनंत काल तक
इस पिडा के उपहार को
जीवन भर आ मैं
अपने ह्रदय में सजा लूं 


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