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और कितना?



तुम मुझे हमेशा  
स्वीकार और अस्वीकार
के मध्य रखते आए हो 

तुमने मुझे हमेशा 
मिलना और बिछड़ना 
इसी के मध्य रखा है 

तुम मुझे हमेशा 
कपाल पर उभरी लकिंर
और होठों पर उभरी मुस्कान
के बीच रखते आये हो

तुम्हारे लिए मैं केवल
एक सामान सी बन गयी हूँ अब तो
या फिर कोई मौसम 

मेरी संवेदनाएं है
ठेस मुझे भी लगती है
रक्त सम आँसू
और कितने बहा दूं मै

या फिर असहनीय दु:ख को
जो बार- बार मेरे हिस्से
तुम लिख रहे हो
उससे आज छुटकारा पा लू? 
रोज होते छलनी मन को
बस एक जख्म देकर
अनंत काल तक
इस पिडा के उपहार को
जीवन भर आ मैं
अपने ह्रदय में सजा लूं 


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दु:ख

काली रात की चादर ओढ़े  आसमान के मध्य  धवल चंद्रमा  कुछ ऐसा ही आभास होता है  जैसे दु:ख के घेरे में फंसा  सुख का एक लम्हां  दुख़ क्यों नहीं चला जाता है  किसी निर्जन बियाबांन में  सन्यासी की तरह  दु:ख ठीक वैसे ही है जैसे  भरी दोपहर में पाठशाला में जाते समय  बिना चप्पल के तलवों में तपती रेत से चटकारें देता   कभी कभी सुख के पैरों में  अविश्वास के कण  लगे देख स्वयं मैं आगे बड़कर  दु:ख को गले लगाती हूं  और तय करती हूं एक  निर्जन बियाबान का सफ़र

जरूरी नही है

घर की नींव बचाने के लिए  स्त्री और पुरुष दोनों जरूरी है  दोनों जितने जरूरी नहीं है  उतने जरूरी भी है  पर दोनों में से एक के भी ना होने से बची रहती हैं  घर की नीव दीवारों के साथ  पर जितना जरूरी नहीं है  उतना जरुरी भी हैं  दो लोगों का एक साथ होना

उसे हर कोई नकार रहा था

इसलिए नहीं कि वह बेकार था  इसलिए कि वह  सबके राज जानता था  सबकी कलंक कथाओं का  वह एकमात्र गवाह था  किसी के भी मुखोटे से वह वक्त बेवक्त टकरा सकता था  इसीलिए वह नकारा गया  सभाओं से  मंचों से  उत्सवों से  पर रुको थोड़ा  वह व्यक्ति अपनी झोली में कुछ बुन रहा है शायद लोहे के धागे से बिखरे हुए सच को सजाने की  कवायद कर रहा है उसे देखो वह समय का सबसे ज़िंदा आदमी है।