गुम हो गई अनगिनत कविताएँ
रोटी की खोज में
कही सडकें कही बियाबान
पार करते हुएं
मुझे धरती भी छोटी लगी
पैरों के उंगलियाँ में
कही कही शहरों की धसी मिट्टी
बन सकती थी एक कहानि
पर हर नये शहर में हम
सिक्के की खोज़ में ही निकलते रहे
मैने पढ़े कही कही चेहरे
जो पसीने से लधपध थे
इतनीभर फुर्सत नहीं थी उन्हें
श्रम के पानी को हथेलियां
नसीब कर सके
और मेरे हिस्से की जमीन
इतनी पथरीली और पाषाणी थी
कि मेरे हाथ कलम तक पहुचे ही नहीं
जहाँ पर एकट्टा कर सकती थी मै
ये सर्घष की सीधी तिरछी रेखाएँ
और रच सकती एक उपन्यास
सम्भावना तो बनी.
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