देहातों में औरतें
गूंगी रखी जाती हैं
होती नहीं
सवाल पूछने की
हिम्मत नहीं करती है
और पूछने पर
रक्त बहती नदी
पीठ में उगाकर
कोने में पड़ी रहती हैं
उनकी हुंकार सुनकर
रात ओंस के बहाने
आंसू बहाती हैं
शहरों में आते-आते
यह स्थिति बदल जाती हैं
यहां सवाल पूछने पर
पीठ पर निशान नहीं
उग आते हैं
पर आत्मा को
छलनी छलनी कर
छोड़ा जाता है
रात के अंधेरे में
यह कोई हुंकार
नहीं निकलती हैं
बस शहर की औरतें
सारी रात अपने अंदर
सोक लेती हैं और
बेजुबान बना
दी जाती है
रोज थोड़ा थोड़ा
जहर पीकर
मृत्यु की ओर
प्रस्थान करती हैं
देहात में पीठ पर
जख्म छोड़े जाते हैं
तो शहर में आत्मा
पर घाव दिए जाते हैं
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२२-०१ -२०२२ ) को
'वक्त बदलते हैं , हालात बदलते हैं !'(चर्चा अंक-४३१३) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
धन्यवाद आदरणीय
हटाएंसुंदर भावनात्मक पंक्तियाँ।
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही कहा आपने औरतों पर अत्याचार करने वाले देहात और शहर दोनों जगह मौजूद है !
जवाब देंहटाएंऔरतों पर होने वाले उत्पीड़न की दर्दनाक दांस्ता को बयां करती अत्यंत मार्मिक रचना
बहुत ही सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंजी औरतों की व्यथा कथा को बहुत ही संवेदनशील अभिव्यक्ति दी है आदरणीय ।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी रचना ।
जवाब देंहटाएंशहर हो या देहात , हर जगह ही ऐसी स्थिति है ।देह के निशान दिख जाते हैं लेकिन मन के निशान की कोई निशानदेही भी नहीं होती ।
जवाब देंहटाएंमर्मस्पर्शी रचना ।
मार्मिक सत्य
जवाब देंहटाएंसबकी अपनी-अपनी व्यथा है,
जवाब देंहटाएंजिसे आपने बखूबी बयां किया है.
कोशिश रहे कि पटकथा बदल जाये
चोटों पर मरहम काम कर जाये
कटु सत्य है
जवाब देंहटाएंसच शहर में देहात से भी बद्तर हालात देखने को मिलते हैं