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रंग



कितने ही किस्म के होते हैं रंग

कुछ मिलते हैं बाजारों में

कुछ समाये हैं हमारे किरदारों में

बाजारों के रंग खुलेआम दिखते हैं

किरदारों के रंग आवरण में छुपतें  हैं


कितना सुंदर होता है मजदूरी के सिक्के का रंग

कभी कभार बन जाता है ये क्रांति का रंग

खून बन बहता है ये रंग

क्योंकि भूख का रंग सबसे गाढ़ा होता है


महानगरों के फ्लायओवर के नीचे

चेहरें पर जमे होते हैं बेहिसाब रंग

जो दाँत निकालकर हँसते हैं उजाले में

अंधकार में घाव बन रिसते हैं


चुनावी मौसम के भी होते हैं अपने रंग

जो लफ़्ज़ों में इन्द्रधनुष बन फैलतें हैं

धरती से आसमा लालच का माप लेते हैं

पर कार्यों में रोगी बन अलसाते हैं


पर हम सब बेखबर है उस रंग से

जो धीरे-धीरे गायब हो रहा है जड़ों से

जो हरियाली बन खिलखिलाता था

पिला बन नवोंडी जैसा शरमाता था

उत्सव बन खलियानों में झुमता था

किसानों के हाथ से छुट रहा मिट्टी का रंग


तरसती है हवाएँ सुनने के लिए,

चैत के गीतों का रंग

जिस दिन ये रंग हो जायेगा नदारत

उस दिन हमारी अंतड़ियों का रंग

पड़ जायेगा धीरे-धीरे नीला 

और हवाएँ बन जाएगी जहरीली…

टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (05-01-2022) को चर्चा मंच      "नसीहत कचोटती है"   (चर्चा अंक-4300)     पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'   

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रिश्ते

अपना खाली समय गुजारने के लिए कभी रिश्तें नही बनाने चाहिए |क्योंकि हर रिश्तें में दो लोग होते हैं, एक वो जो समय बीताकर निकल जाता है , और दुसरा उस रिश्ते का ज़हर तांउम्र पीता रहता है | हम रिश्तें को  किसी खाने के पेकट की तरह खत्म करने के बाद फेंक देते हैं | या फिर तीन घटें के फिल्म के बाद उसकी टिकट को फेंक दिया जाता है | वैसे ही हम कही बार रिश्तें को डेस्पिन में फेककर आगे निकल जाते हैं पर हममें से कही लोग ऐसे भी होते हैं , जिनके लिए आसानी से आगे बड़ जाना रिश्तों को भुलाना मुमकिन नहीं होता है | ऐसे लोगों के हिस्से अक्सर घुटन भरा समय और तकलीफ ही आती है | माना की इस तेज रफ्तार जीवन की शैली में युज़ ऐड़ थ्रो का चलन बड़ रहा है और इस, चलन के चलते हमने धरा की गर्भ को तो विषैला बना ही दिया है पर रिश्तों में हम इस चलन को लाकर मनुष्य के ह्रदय में बसे विश्वास , संवेदना, और प्रेम जैसे खुबसूरत भावों को भी नष्ट करके ज़हर भर रहे हैं  

क्षणिकाएँ

1. धुएँ की एक लकीर थी  शायद मैं तुम्हारे लिये  जो धीरे-धीरे  हवा में कही गुम हो गयी 2. वो झूठ के सहारे आया था वो झूठ के सहारे चला गया यही एक सच था 3. संवाद से समाधि तक का सफर खत्म हो गया 4. प्रेम दुनिया में धीरे धीरे बाजार की शक्ल ले रहा है प्रेम भी कुछ इसी तरह किया जा रहा है लोग हर चीज को छुकर दाम पूछते है मन भरने पर छोड़कर चले जाते हैं

जरूरी नही है

घर की नींव बचाने के लिए  स्त्री और पुरुष दोनों जरूरी है  दोनों जितने जरूरी नहीं है  उतने जरूरी भी है  पर दोनों में से एक के भी ना होने से बची रहती हैं  घर की नीव दीवारों के साथ  पर जितना जरूरी नहीं है  उतना जरुरी भी हैं  दो लोगों का एक साथ होना