प्रेम हमेशा परोसा गया मुझे
अपमान की थाली में
आसमान की तरफ इशारा करके
मेरे पंखों को कसके पकड़ा गया
मेरी हथेलियों पर नमक रोपकर
मुझे मुस्कुराने की हिदायत दी गई
तरसती रही प्रेमी की एक आवाज के लिए
अनगिनत मौसमों के बीतने के बावजूद भी
बंजर भूमि मै तब्दील होती गई
हर उत्सवों ,त्यौहारों में मैं
तुम सब के बेवफाई का
बोझ अकेले ढो़ती गयी
धीरे-धीरे अपनी
उम्मीदों ,सपनों और श्रंगार को
अपने तन-मन से उतारती गई
ह
वाह। अच्छी कविता।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंसादर
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(०७-१०-२०२१) को
'प्रेम ऐसा ही होता है'(चर्चा अंक-४२१०) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
धन्यवाद
हटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 07 अक्टूबर 2021 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
धन्यवाद सर
हटाएंअत्यंत मार्मिक वह हृदय स्पर्शी रचना
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मित्र
हटाएंगहन अभिव्यक्ति..
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर।
धन्यवाद मित्र
हटाएंशानदार रचना।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सर
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जवाब देंहटाएंसुंदर सृजन ।
धन्यवाद मित्र
हटाएंसुंदर अभिव्यक्ति आदरणीय ।
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