समर्पण का गणित हमेशा
मेरे हिस्से ही क्यों ?
क्यों तुम्हें लगा
बच्चों के नाम की बेडियां
मेरे पैरों में डालकर
स्वच्छंदता से तुम विचरते रहोगे
बाजार समझ मकान में लौटोगे
जिसे घर बनाया मैंने
संघर्ष की तपती रेत पर चलकर
नहीं वे दिन कब के बीत गए
मंगलसूत्र का एक धागा
मांग में मौजूद थोड़ा सा सिंदूर
गर्भ में रचा तुम्हारा अंश
प्रमाण नहीं बनेंगे अब
तुम्हारे स्वामित्व का
तुम बेफिक्र घूमते रहे
समाज ने दी सिख लेकर
औरत मां बनने के पश्चात
दहलीज पार नहीं कर सकती
पर अब बदलनी होगी
इस सिख की परिभाषा
अब रोपनी होगी मुझे ही
भविष्य के नवनिर्माण की अभिलाषा
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(१४-१०-२०२१) को
'समर्पण का गणित'(चर्चा अंक-४२१७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
आभार आदरणीय
जवाब देंहटाएंनारी को अपने भीतर की शक्ति को जगाना ही होगा
जवाब देंहटाएंजी बिल्कुल सही कहा आपने
हटाएंतुम बेफिक्र घूमते रहे
जवाब देंहटाएंसमाज ने दी सिख लेकर
औरत मां बनने के पश्चात
दहलीज पार नहीं कर सकती
पर अब बदलनी होगी
इस सिख की परिभाषा
अब रोपनी होगी मुझे ही
भविष्य के नवनिर्माण की अभिलाषा
बिल्कुल सही कहा आपने अब बदलाव की जरूरत है और इसकी शुरुआत हमें खुद करनी होगी, रुढ़िवादी विचारधाराओं को बदलना ही होगा!
बहुत ही उम्दा व सरहनीय प्रस्तुति
धन्यवाद मित्र
हटाएंबहुत सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंसमर्पण के गणित कब के बदल चुके ।
सस्नेह।
चिंतनपूर्ण सामयिक अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंभावमयी प्रस्तुति । 👌👌👌👌
जवाब देंहटाएंपर अब बदलनी होगी
जवाब देंहटाएंइस सीख की परिभाषा
अब रोपनी होगी मुझे ही
भविष्य के नवनिर्माण की अभिलाषा
सच बहुत हुआ, आखिर कब तक वैशाखी के सहारे जियेगा कोई
बहुत खूब
वाह बहुत खूब
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