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दिन -2


नवरात्रि के नौ दिन नौ कविताएं - 
दिन 2

मंदिरों में सजाया गया मुझे 
पर क्या घर आंगन में 
उतनी ही सहजता से 
क्या स्वीकारा गया है  मुझे
 गर्भ से लेकर श्मशान तक 
कितनी कठिनाइयों को झेला 
पर इस रोष में कभी 
संसद पर ताला चढ़ाया है तूने ?

 देवालयों के गर्भगृह में 
सदा कीमती परिधानों से ढकी रही
पर धूल ,मिट्टी कूड़े  के बीच 
अपनी संतति की भूख बिनती 
कात्यायनी के फटे
वस्त्रो को  कभी  निहारा है तूने ?

नहीं ना 
तो सुनो 
मैंने उन तमाम दहलीज को लांघा हैं
जहां मैं मूर्तियों में रची बसी गयी
अब मैं रहती हूं उस अस्मिता के पीठ पर
छांव बन जहां झुलसती है रोटी 
उन बिस्तरों के सिलवटों  पर 
जहां औरत देह समझ नोची जाती है 
मैं बसती हूं उस कपाल के मध्य 
जहां बिंदी नहीं पसीना थकान बन बहता है

टिप्पणियाँ

  1. आपकी रचनाए हम लेजाते है
    और आप ब्लॉग तक भी नहीं आती
    अब तो लॉकडाउन भी नहीं है
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. आपकी लिखी रचना  ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 10 अक्टूबर 2021 को साझा की गयी है....
    पाँच लिंकों का आनन्द पर
    आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं

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रिश्ते

अपना खाली समय गुजारने के लिए कभी रिश्तें नही बनाने चाहिए |क्योंकि हर रिश्तें में दो लोग होते हैं, एक वो जो समय बीताकर निकल जाता है , और दुसरा उस रिश्ते का ज़हर तांउम्र पीता रहता है | हम रिश्तें को  किसी खाने के पेकट की तरह खत्म करने के बाद फेंक देते हैं | या फिर तीन घटें के फिल्म के बाद उसकी टिकट को फेंक दिया जाता है | वैसे ही हम कही बार रिश्तें को डेस्पिन में फेककर आगे निकल जाते हैं पर हममें से कही लोग ऐसे भी होते हैं , जिनके लिए आसानी से आगे बड़ जाना रिश्तों को भुलाना मुमकिन नहीं होता है | ऐसे लोगों के हिस्से अक्सर घुटन भरा समय और तकलीफ ही आती है | माना की इस तेज रफ्तार जीवन की शैली में युज़ ऐड़ थ्रो का चलन बड़ रहा है और इस, चलन के चलते हमने धरा की गर्भ को तो विषैला बना ही दिया है पर रिश्तों में हम इस चलन को लाकर मनुष्य के ह्रदय में बसे विश्वास , संवेदना, और प्रेम जैसे खुबसूरत भावों को भी नष्ट करके ज़हर भर रहे हैं  

क्षणिकाएँ

1. धुएँ की एक लकीर थी  शायद मैं तुम्हारे लिये  जो धीरे-धीरे  हवा में कही गुम हो गयी 2. वो झूठ के सहारे आया था वो झूठ के सहारे चला गया यही एक सच था 3. संवाद से समाधि तक का सफर खत्म हो गया 4. प्रेम दुनिया में धीरे धीरे बाजार की शक्ल ले रहा है प्रेम भी कुछ इसी तरह किया जा रहा है लोग हर चीज को छुकर दाम पूछते है मन भरने पर छोड़कर चले जाते हैं

जरूरी नही है

घर की नींव बचाने के लिए  स्त्री और पुरुष दोनों जरूरी है  दोनों जितने जरूरी नहीं है  उतने जरूरी भी है  पर दोनों में से एक के भी ना होने से बची रहती हैं  घर की नीव दीवारों के साथ  पर जितना जरूरी नहीं है  उतना जरुरी भी हैं  दो लोगों का एक साथ होना