कई बार बिखरी थी वो
हर बार समेट लिया करती थी खुद को
एक सिलसिला सा बनता गया
बिखरने और समेंटने का
पर इस बार
उसने नहीं समेटा खुद को
क्योंकि उस बिख़राव को
जीना चाहती थी वो
चलना चाहती थी उसी राह पर
जिन पगडंडियों पर गिरे थे
ह्रदय के अनगिन टुकड़े
कदमों में चुभते थे
जो बार-बार शूल की तरह
हर चुभन के साथ बहे जो आंसू
लाल रंग के
वो बहायेगी उसे नदी में
और एक दिन बह उठेंगी
लाल खून सी लहरें
सागर के सीने पर
जो कर देंगी सागर के
अस्तित्व को शर्मिंदा
आज वो नहीं समेटना चाहती हैं
बिखरे हुए दिन और रात
उलझते हैं जो कई-कई बार
सूरज की प्रथम किरण को
भूली थी वह
चुभती थी उसे चांद की शीतलता
रात लंबी होती थी
इसलिए दिन के उजाले को
नहीं चीर पाती थी
वो नहीं समेंटना चाहती थी
उसका बिखरा श्रृंगार इस बार
काजल मेघ बन फैलता आसमान में
माथे की बिंदी में बचा था
केवल एक शून्य
उसके होठों की मुस्कान
पी गया था भ्रमर धोखे से
अपने गुंजन में करके उसे मुग्ध I
बहुत भावपूर्ण रचना ।आदरणीया शुभकामनाएँ
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण रचना। बधाई।
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