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कुछ इस कदर बिखर गये हम

कई बार बिखरी थी वो
हर बार समेट लिया करती थी खुद को 
एक सिलसिला सा बनता गया
बिखरने और समेंटने का 
पर इस बार 
उसने नहीं समेटा खुद को 
क्योंकि उस बिख़राव को 
जीना चाहती थी वो

चलना चाहती थी उसी राह पर
जिन पगडंडियों पर गिरे थे 
ह्रदय के अनगिन टुकड़े
कदमों में चुभते थे 
जो बार-बार शूल की तरह
हर चुभन के साथ बहे जो आंसू 
लाल रंग के
वो बहायेगी उसे नदी में 
और एक दिन बह उठेंगी 
लाल खून सी लहरें
सागर के सीने पर 
जो कर देंगी सागर के 
अस्तित्व को शर्मिंदा 

आज वो नहीं समेटना चाहती हैं 
बिखरे हुए दिन और रात 
उलझते हैं जो कई-कई बार
सूरज की प्रथम किरण को 
भूली थी वह
चुभती थी उसे चांद की शीतलता 
रात लंबी होती थी 
इसलिए दिन के उजाले को 
नहीं चीर पाती थी

वो नहीं समेंटना चाहती थी
उसका बिखरा श्रृंगार इस बार 
काजल मेघ बन फैलता आसमान में
माथे की बिंदी में बचा था 
केवल एक शून्य
उसके होठों की मुस्कान 
पी गया था भ्रमर धोखे से
अपने गुंजन में करके उसे मुग्ध I

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रिश्ते

अपना खाली समय गुजारने के लिए कभी रिश्तें नही बनाने चाहिए |क्योंकि हर रिश्तें में दो लोग होते हैं, एक वो जो समय बीताकर निकल जाता है , और दुसरा उस रिश्ते का ज़हर तांउम्र पीता रहता है | हम रिश्तें को  किसी खाने के पेकट की तरह खत्म करने के बाद फेंक देते हैं | या फिर तीन घटें के फिल्म के बाद उसकी टिकट को फेंक दिया जाता है | वैसे ही हम कही बार रिश्तें को डेस्पिन में फेककर आगे निकल जाते हैं पर हममें से कही लोग ऐसे भी होते हैं , जिनके लिए आसानी से आगे बड़ जाना रिश्तों को भुलाना मुमकिन नहीं होता है | ऐसे लोगों के हिस्से अक्सर घुटन भरा समय और तकलीफ ही आती है | माना की इस तेज रफ्तार जीवन की शैली में युज़ ऐड़ थ्रो का चलन बड़ रहा है और इस, चलन के चलते हमने धरा की गर्भ को तो विषैला बना ही दिया है पर रिश्तों में हम इस चलन को लाकर मनुष्य के ह्रदय में बसे विश्वास , संवेदना, और प्रेम जैसे खुबसूरत भावों को भी नष्ट करके ज़हर भर रहे हैं  

क्षणिकाएँ

1. धुएँ की एक लकीर थी  शायद मैं तुम्हारे लिये  जो धीरे-धीरे  हवा में कही गुम हो गयी 2. वो झूठ के सहारे आया था वो झूठ के सहारे चला गया यही एक सच था 3. संवाद से समाधि तक का सफर खत्म हो गया 4. प्रेम दुनिया में धीरे धीरे बाजार की शक्ल ले रहा है प्रेम भी कुछ इसी तरह किया जा रहा है लोग हर चीज को छुकर दाम पूछते है मन भरने पर छोड़कर चले जाते हैं

जरूरी नही है

घर की नींव बचाने के लिए  स्त्री और पुरुष दोनों जरूरी है  दोनों जितने जरूरी नहीं है  उतने जरूरी भी है  पर दोनों में से एक के भी ना होने से बची रहती हैं  घर की नीव दीवारों के साथ  पर जितना जरूरी नहीं है  उतना जरुरी भी हैं  दो लोगों का एक साथ होना