पिता !
जैसे घर की नीव में
अदृश्यता से स्थित पत्थर
सहता है सम्पूर्ण भार
जताये बिन श्रम निरंतर
पिता !
मिट्टी में स्थित बीज
बिन संतुलन खोये
बिना लोभ लालच
स्थित विशिष्ट दूरी पर
उर्जा पहुंचाता निरंतर
पिता!
जैसे बूढ़ा दरख्त
चमड़े जितना सख़्त
रक्त जमा दे क्यू न शीत
सहता धूप तपिश निरंतर
पिता !
रात के अंधयारे में
थकी आंखें दीवार पे
बच्चों की सपनों की उड़ान
रेखती रहती निरंतर
पिता
एक ऐसा वजूद
जिसके घिसे जूतों से
निकलता है संतानों के
अस्तित्व का मार्ग
जिनका जीवन में होना
सूरज सम उर्जा से
भरता रहना निरंतर
(पिता हमेशा पुरूष ही नहीं होता है मां भी पिता का दायित्व संभाल लेने की क्षमता रखती हैं)
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 22 सितम्बर 2020 को साझा की गयी है............ पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआप से सहमत हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत ही उम्दा लिखा है।
पधारें नई रचना पर 👉 आत्मनिर्भर
वाह
जवाब देंहटाएंसुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंवाह!बेहतरीन !
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और सच।
जवाब देंहटाएं