मछली बाजार की औरतें
जब भी मैं
जाती हूँ मछली बाजार
एक आदत सी बनी है
उन औरतों को निहारती हूँ
देखती हूँ मछली बेचने का कौशल
पल में सोचती हूँ
चंद पैसों के लिए
सुबह से शाम लगाती हांक ये
बैठती हैं ये बाजार में
मैं सोचती हूँ
अगर ये न होती
इनके मर्दो की सारी मेहनत
सड़ जाती गल जाती
जो अभी है समंदर के लहरों से लड़ता हुआ
लाने को नाव भर मछलियां
एक मछली वाली है इन्हीं में
सूनी है जिसकी कलाई
मांग भी सूना है
गांव की तिरस्कृत पगडंडी की तरह
चेहरा थोड़ा काला
कुरूप सा लेकिन मेहनत के रंग से दीप्त
उसके श्रम को सलाम है मेरा
जिसका पुरूष समंदर से लड़ते हुए
लौटा नहीं कभी लेकर मछलियां
मेरे सामने से
गुजरते हैं हजारों चेहरे
नित्य केशों में सफेद फूल बांधते
नथनी , बिंदी और पायल से सजी
और स्निग्धता से भरी
ये मछली बेचती औरतें
हर रात अपना श्रंगार
समंदर के लहरों के भरोसे ही तो करती होंगी
जिन पर सवार हो उनके पुरूष
समंदर की गहराई में ढूंढते हैं भूख का हल
मछली के रूप में
भरी टोकरी मछली बार बार उदास करती है उसे
और कमर पर खुँसी पैसे के बटुए को
देखती हैं कनखी से समंदर से टोकरी
और फिर थैली का सफर बडा़ मुश्किल होता है
इनमें मछली बाजार की औरतों का।
एक दृश्य खैंचा है इन औरतों का ... जहाँ मैग्नेट और समवेदना दोनों नज़र आती हैं ...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सर
हटाएंआपने पूरी तस्वीर उतार दी अपनी रचना में ।बहुत ख़ूब,,,,,,,,,आदरणीय प्रणाम
जवाब देंहटाएंआभआ
हटाएंबहुत सुंदर खाका खींचा आपने मछुआरनों का। वैसे यह सदा गहनों से लदी होती हैं।बहुत दौलत हैं जिनके पास।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंसमाज के कड़वे रूप को प्रदर्शित करती खूबसूरत कविता।
जवाब देंहटाएंये मछली बेचती औरतें
जवाब देंहटाएंहर रात अपना श्रंगार
समंदर के लहरों के भरोसे ही तो करती होंगी
जिन पर सवार हो उनके पुरूष
समंदर की गहराई में ढूंढते हैं भूख का हल
मछली के रूप में ...वाह मछली बाजार की औरतें ....कल्पना की सबसे बड़ी उड़ान भरती कविता सरिता जी
चित्रोपमता भी और वर्णन में सजीवता भी -- बहुत सुन्दर
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