बड़ी माँ जैसे खेत में पनपे
अनचाहे धान को उखा़ड़कर फेंक दिया करती
कुछ इसी तरह अनचाहा जन्म हुआ मेरा
जैसे छत पर किसी पौधे के उगने से
चितां में पड़ जाती थी दादी छत के टुटने के
कुछ ऐसा ही रहा जनम मेरा
सुनाती थी अक्सर पड़ोस की चाची
पिता ने किस तरह से भारी मन से
दो रूपये दिये थे दाई माँ को
और ढेर सारी गालियाँ उस ईश्वर को
याद आता है सचित्र वह दृश्य आज भी
जब मैं बैठती मोड़कर पैर पीछे की तरफ
दद्दा देते खूब गालियाँ उनका मानना था
तुम्हारे बाद लड़के का जन्म होगा
और पीछे पैर डालने से है।उसका अपमान
जैसे-जैसे बड़ी होती गई
घर के हर कोने में मैने जगह बनाई
एक दिन बिना किसी के, मन के तालों को खोले
फिर, मै वहाँ से निकल गयी हमेशा के लिये
ये अनचाही बेटियाँ क्या कुछ सहती हैं और अगर खुद को साबित कर दिया तो वही बड़े गर्व से तारीफ करेंगे ।
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ सेहना पड़ता है इन अनचाही बेटियों को फिर भी खुद को एक विशिष्ट स्थान पर खडाख कर ही देती है
हटाएंधन्यवाद दी
बेटियों के जन्म पर समाज में आई दुखद स्थिति को शब्दों में बड़ी खूबसूरती से चित्रित किया आपने शुक्रिया
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सर
जवाब देंहटाएंऐसी अनचाही बेटियाँ बहुत हैं, पर सभी इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाती कि चल दे वहाँ से जहाँ उसका अस्तित्व है ही नहीं.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंसमाज मैं ऐसे कोड़ जाने कांसे फैले हुये हैं ... अब नई पीड़ी को आगे आ कर इनको दूर करना है ...
जवाब देंहटाएंजी
हटाएंधन्यवाद