तुम्हारे शहर में
तुम्हारे शहर में
आज भी मै
इन पगडंडियों पर
ढूंढती हूँ तुम्हारे क़दमों के निशान
ताकि रखकर अपनी कदमें उनपर
चल सकूं उसी धैर्य और सहनशीलता के साथ
पा सकूं तुम्हे अपने भीतर
जिन्हें भूल तुम नहीं लौटे कभी
इन पगडंडियों की ओर
किन्तु सुना है
तुम्हारे शहर में
संवेदनाओं को कहते हैं
नाटक
इसीलिए शायद वहां होते हैं
उपरिपुल, राजमार्ग
नहीं होती पगडण्डीयां ! ह
अच्छी कविता । लेकिन टिप्पणी डावने के लिए क ई चरण पूर्ण करने पड़े ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आदरणीय
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना
जवाब देंहटाएंआभार सर
जवाब देंहटाएंशहर तभी अलग हैं वो ख़ुशबू कहाँ उनमें ...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सर
जवाब देंहटाएंबाप रे , कितनी सरलता से आपने कितनी गहरी बात कह डाली है | सच में ही ये तो ध्यान ही नहीं दिया की शहरों में पगडंडियाँ नहीं मिलती | बहुत अलहदा है आपका अंदाज़
जवाब देंहटाएंकृपया अनुसरक विजेट लगाएं इससे आपको ब्लॉग को अनुसरण करने में आसानी होगी और आपकी अगली पोस्ट हमारे डैशबोर्ड पर खुद ब खुद आ जाएगी | शुक्रिया
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद सर
जवाब देंहटाएंअच्छी अभिव्यक्ति !
जवाब देंहटाएंआभार
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